गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

साक्षी - सृष्टि का मूलभूत तत्व

दृष्टा: ब्रह्मांड का परम रहस्य और चेतना की उड़ान 



प्रस्तावना:
मनुष्य जन्मता है, जीता है, विचार करता है, प्रेम करता है, रोता है, हंसता है—और अंततः खो जाता है। लेकिन क्या यह सब कुछ मात्र एक नाटक है? क्या कोई "देखने वाला" है—जो इन सभी अनुभवों से परे है?  
दृष्टा: चेतना, अनुभव, आधुनिक विज्ञान और शाश्वत अस्तित्व  
🔱 अद्वैत वेदांत कहता है:  
"साक्षी चेतनः निर्विकारः।" (साक्षी, चेतन है और विकार रहित है।)  

यह दर्शन, ऋषियों की प्राचीन खोज और आधुनिक वैज्ञानिकों की नवीनतम सोच हमें यह बताती है कि सभी अनुभवों का अनुभवकर्ता एक ही है, और वह स्वयं सभी अनुभवों से परे है।

लेकिन कौन है वह? क्या..


💠 वह दृष्टा है?  
💠 वह मौन है? 
💠 वह अचल है? 
💠 वह शून्य होते हुए भी पूर्ण है? 
💠 वह विज्ञान से परे है और विज्ञान उसी में जन्म लेता है।  

चलिए, इस रहस्य की गहराई में उतरते हैं। 🚀  

अद्वैत वेदांत का दृष्टा सिद्धांत केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत गहन और महत्वपूर्ण है। यह विचार न केवल प्राचीन भारतीय दर्शन में प्रकट होता है, बल्कि आधुनिक क्वांटम भौतिकी, न्यरोसाइंस, और कॉस्मोलॉजी भी इसे नए तरीके से समझने का प्रयास कर रही हैं। इतना ही नहीं, यह लेख दृष्टा को वेदांतों के उद्धरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करेगा और इसे पश्चिमी दर्शन की प्रमुख विचारधाराओं से जोड़कर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करेगा।  
हम न केवल शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, महावतार बाबाजी और लाहिरी महाशय, उपनिषद, वेदों, कबीर, ओशो, मीरा आदि के विचारों को प्रस्तुत करेंगे, बल्कि आइंस्टीन, निकोला टेस्ला, डेविड बोहम और पैनसप्सिज़्म जैसे आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को भी शामिल करेंगे, ताकि यह समझ सकें कि दृष्टा का सिद्धांत विज्ञान और आध्यात्म दोनों में कैसे परिलक्षित होता है।
अद्वैत वेदांत का दृष्टा (साक्षी भाव) सिद्धांत चेतना और अस्तित्व के गहरे रहस्यों को उजागर करता है। यह विचार केवल भारतीय दर्शन में ही नहीं, बल्कि कई अंतरराष्ट्रीय विचारकों की सोच में भी गूंजता है। 


🧠 आधुनिक विज्ञान और चेतना का रहस्य

क्वांटम भौतिकी और दृष्टा

क्वांटम भौतिकी के कई प्रयोगों ने यह दिखाया है कि चेतना ही वास्तविकता को प्रभावित कर सकती है।

🚀 डबल-स्लिट प्रयोग दिखाता है कि चेतना ही यथार्थ को आकार देती है।  
यह प्रसिद्ध प्रयोग दर्शाता है कि इलेक्ट्रॉन और प्रकाश तरंग या कण के रूप में व्यवहार कर सकते हैं—लेकिन केवल तब जब कोई "दर्शक" (Observer) मौजूद हो।
- जब कोई इन्हें नहीं देखता, तो वे संभावनाओं (Wave Function) के रूप में फैलते हैं।  

- लेकिन जब कोई इन्हें देखता है, तो वे ठोस कण बन जाते हैं। 
 
डेविड बोहम और समग्र चेतना (Wholeness and Implicate Order)
डेविड बोहम, जो एक प्रसिद्ध क्वांटम भौतिकविद् थे, उन्होंने माना कि ब्रह्मांड एक अखंड चेतना है।  
- उन्होंने कहा कि सभी चीजें गहराई से आपस में जुड़ी हुई हैं।  
- यह अद्वैत वेदांत के सिद्धांत से मिलता-जुलता है कि "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (सभी कुछ ब्रह्म है)।


 आइंस्टीन और ब्रह्मांडीय चेतना
⚡ Reality is merely an illusion."(यथार्थ केवल एक भ्रम है!)  
अद्वैत वेदांत यही कहता है—संसार केवल एक माया है!  

 निकोला टेस्ला और ऊर्जा का रहस्य 
💡 टेस्ला ने कहा: "If you want to understand reality, think in terms of energy and vibration!"
🔱 अद्वैत वेदांत भी कहता है: "ऊर्जा ही चेतना है!"
 

इससे अद्वैत वेदांत के दृष्टा सिद्धांत को वैज्ञानिक रूप से समर्थन मिलता है—साक्षी ही अनुभव को प्रकाशित करता है। संसार माया है, और केवल ब्रह्म ही सत्य है।

क्या चेतना ही सभी अनुभवों से परे है?
विज्ञान और दर्शन दोनों ही इस प्रश्न पर विचार कर चुके हैं—क्या चेतना ही सबकुछ है?

पैनसप्सिज़्म (Panpsychism): चेतना का विज्ञान  
पैनसप्सिज़्म एक आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांत है, जो यह मानता है कि ब्रह्मांड की प्रत्येक चीज़ में चेतना है—परमाणु से लेकर पूरे ब्रह्मांड तक!
- यह विचार अद्वैत वेदांत से बहुत मेल खाता है, जो यह कहता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ)। 

आधुनिक न्यूरोसाइंस और चेतना
आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह माना है कि मस्तिष्क के भीतर कोई विशेष स्थान नहीं है जो "चेतना" को उत्पन्न करता है।
- क्या चेतना मस्तिष्क से बाहर होती है?
- क्या चेतना ही वास्तविकता को आकार देती है? 
अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि चेतना ही वास्तविकता का मूल आधार है, और दृश्य केवल माया है। ।

 पश्चिमी दार्शनिकों की दृष्टा के समान विचारधाराएँ 
 
यद्यपि अद्वैत वेदांत भारत में उत्पन्न हुआ, परंतु कई पश्चिमी दार्शनिकों ने भी इसी तरह की विचारधारा प्रस्तुत की है।  

१. रेने डिकार्ट (René Descartes) – "Cogito, Ergo Sum" 
डिकार्ट ने कहा: "मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।" 
यह विचार बताता है कि अस्तित्व का मूल तत्व चेतना है, जो बाहरी संसार से स्वतंत्र रूप से स्थित है। अद्वैत वेदांत में भी आत्मा को निरपेक्ष और शुद्ध दृष्टा माना जाता है।  

२. इमैनुएल कांट (Immanuel Kant) – "Noumenon और Phenomenon"
कांट ने कहा कि वास्तविकता के दो स्तर होते हैं:  
- Phenomenon (जिसे हम अनुभव करते हैं)  
- Noumenon (जो वास्तविक परंतु अनुभव से परे है)  
यह अद्वैत के दृष्टा-दृश्य सिद्धांत के समान ही है, जहाँ संसार दृश्य है और दृष्टा शुद्ध चेतना है।  

३. आर्थर शोपेनहावर (Arthur Schopenhauer) – "Will and Representation"  
शोपेनहावर ने कहा कि हमारे अनुभव सिर्फ माया हैं, और वास्तविकता एक गहरे स्तर पर स्थित होती है। उनका दृष्टिकोण वेदांत के माया सिद्धांत से मेल खाता है।  

महापुरुषों का दृष्टिकोण  

१. आदि शंकराचार्य: "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या"  
शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को परिभाषित करते हुए कहा कि केवल ब्रह्म ही वास्तविक है, और संसार माया का खेल मात्र है।  
उनका कहना था कि साक्षी न जन्मता है, न बदलता है, और न ही मरता है।  

२. स्वामी विवेकानंद: "Stand up and realize your true nature"  
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि मनुष्य की वास्तविक पहचान उसका आत्मा (दृष्टा) है,  न कि उसका शरीर या मन।  
उन्होंने कहा:  
"तुम नश्वर शरीर नहीं हो, तुम अमर आत्मा हो। अपने भीतर उस दिव्यता को पहचानो!"

३. महावतार बाबाजी: "Beyond all, yet present in all"
महावतार बाबाजी, जिन्हें सनातन योगी कहा जाता है, अद्वैत के दृष्टा भाव को सबसे उच्च अवस्था मानते थे।  
उनका मत था कि साक्षी अमर, अजन्मा और शून्य होते हुए भी सभी में विद्यमान है।  

४. लाहिरी महाशय: "Experience the observer within you"
लाहिरी महाशय ने ध्यान के माध्यम से दृष्टा का प्रत्यक्ष अनुभव करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति जब अपनी चेतना को संसार से हटाकर स्वयं में स्थिर करता है, तब उसे साक्षी का अनुभव होता है।

📜 ऋषि परंपरा: उपनिषद, शंकराचार्य, और शिव सूत्र की गूंज

उपनिषदों की ध्वनि  
उपनिषदों में कहा गया:  
"नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं!) – अर्थात, साक्षी किसी भी अनुभव में नहीं आता।  
"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ) – आत्मा और ब्रह्म के बीच कोई भेद नहीं।  
"सोऽहम्" (मैं वही हूँ) – अनुभवों का अनुभवकर्ता स्वयं में स्थित है।  

 शंकराचार्य और अद्वैत की ज्वाला 
आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा:  
🔥 "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।" (ब्रह्म ही सत्य है, यह संसार मात्र एक माया है।)  
🔱 "ज्ञानेन मुक्तिः।" (ज्ञान ही मोक्ष है!)  

उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वास्तविकता केवल दृष्टा में निहित है। जो उसे जानता है, वही मुक्त होता है।  

शिव सूत्र: साक्षी और ब्रह्मांड
"चित्तं मान्तरं।" (चेतना ही आत्मा है।)  
"ज्ञाना भ्यासात्।" (साक्षी भाव की साधना ही मोक्ष है।)  

शिव सूत्र हमें सिखाता है कि जो भी दृष्टा को पहचान लेता है, वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है।  

📖 कबीर, मीरा, बुद्ध: प्रेम, त्याग और परम मौन 

कबीर का दिव्य संदेश 
🔥 कबीर कहते हैं:  
"साहिब मेरा एक है, दूजा नाही कोय!" 
🔱 उनका अर्थ? साक्षी केवल एक है। उसमें कोई दूसरा नहीं। 
मीरा का आत्मसमर्पण
💠 मीरा कहती हैं:  
"मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोई!"
⚡ यहाँ प्रेम स्वयं साक्षी का स्वरूप है—जो सब कुछ देखता है, लेकिन स्वयं अनुभवों से परे रहता है।  
बुद्ध का मौन  
बुद्ध ने कहा:  
"शून्यता स्वयं परम सत्य है।"
उनका बोधि दर्शन अद्वैत वेदांत से मिलता है—जो कहता है कि साक्षी स्वयं शून्य होते हुए भी पूर्ण है। 


🌀 ओशो, रमन महर्षि, और जे. कृष्णमूर्ति: अनुभवों से परे का सत्य  

ओशो का गूढ़ रहस्य
🔥 ओशो कहते थे:  
"तुम अनुभवों में नहीं हो। तुम स्वयं दृष्टा हो!"  

रमन महर्षि: "Who am I?"
💠 "मैं कौन हूँ?" – जब व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर देता है, तब वह साक्षी को पहचान लेता है।

जे. कृष्णमूर्ति: जागरूकता ही मोक्ष
"अज्ञान मनुष्य को बांधता है, लेकिन जागरूकता मुक्त करती है!"  
🔱 यही दृष्टा भाव की पहचान है।  
 
वेदांतों से कुछ प्रमुख उद्धरण :  

- "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) — बृहदारण्यक उपनिषद  
- "नेति नेति" (यह नहीं, वह नहीं) — यह वाक्य बताता है कि आत्मा किसी भी भौतिक वस्तु से परे है।  
- "दृष्टा साक्षी न कर्मसंगो" — भगवद गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होता है, वह कर्मों के फल से प्रभावित नहीं होता।

उपनिषदों में कहा गया है:  

- "यः सर्वेभ्यः भूताभ्यः भूतेभ्यः सञ्चलति, स आत्मा" (जो सभी प्राणियों के भीतर स्थित है, वही आत्मा है।) – छांदोग्य उपनिषद  
- "न जायते म्रियते वा कदाचित्" (आत्मा न जन्मता है, न मरता है।) – कठोपनिषद  
- "तमहं वेदै यत्र सर्वं भासते" (मैं उसी को जानता हूँ, जिससे सब प्रकाशित होता है।) – माण्डूक्य उपनिषद  

अद्वैत वेदांत का दृष्टिकोण


अद्वैत वेदांत में दृष्टा (साक्षी) वह शुद्ध चेतना है, जो स्वयं में स्थित रहता है और संसार को केवल देखता है, परंतु उसमें लिप्त नहीं होता। यह आत्मा (आत्मतत्त्व) की मूल अवस्था है, जो ब्रह्म के समान ही निरंतर और अपरिवर्तनीय है।  
दृष्टा और अनुभव: सब कुछ उसी से प्रकाशित है  
दृष्टा को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि सभी अनुभवों का आधार दृष्टा ही है। अद्वैत वेदांत यह बताता है कि:  

१. साक्षी सभी अनुभवों का साक्षी है – जो भी देखा, सुना, महसूस या विचार किया जाता है, वह सब दृष्टा के ही भीतर प्रकाशित होता है।  
२. साक्षी स्वयं अनुभवों से मुक्त है – वह किसी भी अनुभव में लिप्त नहीं होता, बल्कि उसे मात्र देखता है।  
३. साक्षी ही अनुभवों का कारण नहीं, बल्कि उनका प्रकाशक है – अनुभव उसी के कारण संभव होते हैं, लेकिन वह स्वयं उन अनुभवों से प्रभावित नहीं होता।  

इसका अर्थ है कि साक्षी ही वह वास्तविक सत्ता है जो अनुभवों को प्रकट करती है, लेकिन स्वयं किसी अनुभव के अधीन नहीं होती।

साक्षी: निर्गुण होते हुए भी सभी गुणों का प्रकाशक
अद्वैत वेदांत में साक्षी को निर्गुण (गुणों से रहित) माना गया है, परंतु यही साक्षी सभी गुणों को प्रकाशित करता है।  

- निर्गुण – साक्षी किसी भी विशेषता से बंधा हुआ नहीं है।  
- सगुण का प्रकाशक – संसार में जो भी गुण दिखाई देते हैं, वे साक्षी के कारण प्रकाशित होते हैं।  
- निष्क्रिय, परंतु सब क्रिया का मूल स्रोत – जैसे सूर्य स्वयं स्थिर रहता है, परंतु उसके प्रकाश से सभी गतिविधियाँ संभव होती हैं, वैसे ही साक्षी सभी क्रियाओं का साक्षी होकर भी निष्क्रिय रहता है।  

भगवद गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:  
"उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्।" (अपने आत्मा के माध्यम से ही उद्धार करो, क्योंकि आत्मा सबसे श्रेष्ठ है।)  

यह सिद्ध करता है कि साक्षी स्वयं तो निर्गुण है, लेकिन उसके कारण ही सभी गुण प्रकट होते हैं।
🔥 दृष्टा और उसकी अंतिम उड़ान 
तो, कौन हो आप ?

⚡ आप  अनुभव नहीं हो।  
⚡ आप विचार नहीं हो।  
⚡ आप  शरीर नहीं हो।  
⚡ आप  ब्रह्म हो।  
⚡ आप  दृष्टा हो।  

🌀 आप  शून्य होते हुए भी पूर्ण हो।  
💡 आप  मौन होते हुए भी साक्षी हो।  
🔱 आप  निर्गुण होते हुए भी सभी गुणों का प्रकाशक हो।  

⚡जो इसे जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है!

साक्षी को आनंद, प्रेम, मौन, अनंत आदि से क्यों परिभाषित किया जाता है?  

अद्वैत वेदांत साक्षी को अनंदस्वरूप, प्रेम, मौन, शून्य, अजन्मा, अमर, अनंत आदि से परिभाषित करता है क्योंकि:  

- आनंदस्वरूप – आत्मा में अनंत आनंद निहित है। बाहरी सुख अस्थायी हैं, लेकिन आत्मा का आनंद शाश्वत है।  
- प्रेम– साक्षी शुद्ध प्रेम है, क्योंकि वह किसी भी भेदभाव से रहित है।  
- मौन – साक्षी मौन है, क्योंकि वह न विचार करता है, न बोलता है, केवल साक्षी रूप में स्थित रहता है।  
- अजन्मा और अमर – वह न जन्मता है, न मरता है।  
- शून्य, परंतु पूर्ण – अद्वैत में साक्षी को शून्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें कोई गुण नहीं, लेकिन वही पूर्ण है, क्योंकि उसमें सब कुछ समाहित है।  

"सोऽहम्" (मैं वही हूँ) – यह वेदों का महावाक्य स्पष्ट करता है कि आत्मा शाश्वत, आनंदमय, और अचल है।  

निष्कर्ष  
अद्वैत वेदांत, महान वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, महापुरुष, ऋषियों, वेदान्त, उपनिषद, कृष्ण, ओशो, कबीर, मीरा, आज के दौर के विलक्षण गुरु श्री तरुण प्रधान और अनगिनत गुरुजनों का दृष्टा सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि सभी अनुभवों का अनुभवकर्ता एक ही है, और वह सभी अनुभवों से परे है।  
साक्षी निर्गुण होते हुए भी सभी गुणों को प्रकाशित करता है, और वही आनंदस्वरूप, मौन, प्रेम, अजन्मा, अमर, अनंत और शून्य है।  

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और विस्तृत लेखन किया है। हमारी ओर से हार्दिक बधाई।
    श्री तरुण जी हमारे गुरु हैं जिन्होंने अस्तित्व को सिद्ध किया है हमारे समक्ष। और ऐसा गुरु साक्षात परब्रह्म होता है अतः उनके नाम के पहले अति साधारण का विशेषण नहीं होता तो ठीक था।
    अस्तित्व स्वयं को सिद्ध और प्रत्यक्ष करने के लिए गुरु रूप में ही हमारे समक्ष आ कर अपना भेद प्रकट करता है ।

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