सोमवार, 31 मार्च 2025

अस्तित्व: दृष्टा और दृश्य का एकत्व

 अस्तित्व: दृष्टा और दृश्य का एकत्व





अस्तित्व क्या है? यह प्रश्न जितना सरल प्रतीत होता है, उतना ही गूढ़ भी है। हम जो कुछ देखते हैं, सुनते हैं, अनुभव करते हैं—क्या वही अस्तित्व है? या फिर अस्तित्व कुछ ऐसा है, जो अनुभव करने वाले से परे है? अद्वैत वेदांत हमें यह समझाता है कि सृष्टि और सृष्टा दो नहीं, बल्कि एक ही हैं। जो प्रकट और अप्रकट है, वह सब अस्तित्व है। इसे दो आयामों में देखा जा सकता है—दृष्टा (अनुभवकर्ता) और दृश्य (अनुभव)। इसके अन्यत्र भी दृष्टिकोण हैं अस्तित्व को समझने के। तो आइए इन पर एक दृष्टि डालते हैं दृष्टा और दृश्य के भेद को समझने के लिए --


भौतिक दृष्टिकोण (Physical Perspective)

भौतिकी के अनुसार, अस्तित्व वह है जो समय और स्थान में मौजूद है, जिसे इंद्रियों या विज्ञान के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है। हमारा शरीर, ब्रह्मांड, ग्रह—सब कुछ भौतिक अस्तित्व का ही हिस्सा हैं। लेकिन यह दृष्टिकोण केवल पदार्थ तक सीमित है और चेतना के रहस्य को स्पष्ट नहीं करता।

दार्शनिक दृष्टिकोण (Philosophical Perspective)
दार्शनिकों के अनुसार, अस्तित्व केवल भौतिक नहीं, बल्कि चेतना और विचारों का भी हिस्सा है। डिकार्टे ने कहा था—"Cogito, ergo sum" (मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ)। यानी हमारा अस्तित्व हमारी चेतना से परिभाषित होता है। लेकिन अद्वैत वेदांत इससे आगे बढ़कर कहता है कि सोचने वाला भी एक अनुभव है, और उसके पीछे जो है, वही असली अस्तित्व है। उपनिषदों में कहा गया है—"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ)। अर्थात्, अनुभव करने वाला ही वास्तविकता का मूल है।

दृष्टा और दृश्य का भेद-भ्रम
अक्सर हम यह मान लेते हैं कि जो हम देख रहे हैं, वही सत्य है। लेकिन क्या सच में ऐसा है? यदि हम ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि देखने वाला और देखा जाने वाला एक ही चेतना के दो आयाम हैं। जैसे सागर और लहरें—लहरें सागर से भिन्न नहीं हैं, भले ही वे अलग-अलग रूप में दिखती हों। इसी प्रकार, मिट्टी और घड़ा, स्वर्ण और आभूषण का भी संबंध है। घड़े का अस्तित्व मिट्टी पर निर्भर है, आभूषण का अस्तित्व स्वर्ण पर, लेकिन स्वयं मिट्टी और स्वर्ण सदा अपरिवर्तनीय रहते हैं।

उसी प्रकार, जो चेतना हमें यह जगत दिखाती है, वही जगत का आधार भी है। दृष्टा एक ही है, और वही अपने अनंत रूपों का अनुभव करता है। यह जगत मिथ्या है—अर्थात्, यह वास्तविक होते हुए भी केवल एक परिवर्तनशील स्वरूप है। लेकिन जो इसे देख रहा है, वह सत्य है, क्योंकि वह स्वयं परिवर्तन से परे है।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Perspective)
आधुनिक विज्ञान भी इसी सत्य की ओर संकेत करता है। क्वांटम भौतिकी कहती है कि कोई भी कण तब तक निश्चित रूप से मौजूद नहीं होता जब तक कोई उसे देख नहीं लेता। इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मांड केवल एक संभावना है, जिसे देखने वाले की चेतना ही वास्तविकता प्रदान करती है।

सापेक्षता सिद्धांत भी यह दर्शाता है कि समय और स्थान पर्यवेक्षक के अनुसार बदलते हैं, यानी वास्तविकता निश्चित नहीं है, बल्कि यह अवलोकन पर निर्भर करती है। यह विचार अद्वैत वेदांत के अत्यंत समीप है, जहाँ यह कहा जाता है कि जगत केवल चेतना में ही प्रकट होता है।

अद्वैत वेदांत और अस्तित्व की अंतिम समझ

अद्वैत वेदांत के अनुसार, सत्य केवल दृष्टा (चेतना) है और दृश्य (जगत) केवल उसकी अभिव्यक्ति है। भेद केवल दृष्टि में है, वास्तविकता में नहीं। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या"—ब्रह्म ही सत्य है, जगत केवल उसकी छाया।





शंकराचार्य ने कहा—"यत् दृष्टं तत् नाश्यम्" (जो कुछ दिखता है, वह नश्वर है), लेकिन जो इसे देख रहा है, वह अजर-अमर है। यह सत्य जब अनुभव में आता है, तो जन्म और मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है और आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित हो जाता है।


निष्कर्ष


अस्तित्व की खोज हमें द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती है। जब हम यह समझ लेते हैं कि देखने वाला और देखा जाने वाला अलग नहीं, बल्कि एक ही सत्य के दो रूप हैं, तब सारा भ्रम समाप्त हो जाता है। यही आत्मबोध का क्षण होता है। यही वह सत्य है, जिसे शब्दों में पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन जिसे जाना जा सकता है।

"यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह।" (जहाँ शब्द और मन पहुँचने में असमर्थ हो जाते हैं, वहीं सत्य का अनुभव होता है।)


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